Tuesday, October 13, 2009

मीडिया मालिकान पत्रकारों को बंधुआ मजदूर समझते हैं


क्यों पत्रकारों को कम वेतन मिलना चाहिए
खबरों के सिमटते कारोबार को रोक पाना मुमकिन है, यदि पत्रकार अपने ग्राहकों के लिए मूल्य-निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध हों और अपनी कंपनियों के स्तर को निर्धारित करने में शामिल हों।
-राबर्ट जी पीकार्ड, आक्सफोर्ड, इंग्लैंड
लोकतांत्रिक समाज की बेहतरी के लिए और सत्य के प्रति प्रतिबद्धता के कारण पत्रकारिता बेहद महत्वपूर्ण दायित्व है। सो, पत्रकार यह सोचना पसंद करते हैं कि इनका यह काम बेहद नैतिक या पवित्र हैं। इसलिए हर छंटनी के बाद या किसी अखबार के बंद होने की सूचना के बाद वे कहते हैं कि कोई अन्य बिजनेस माडल इस पवित्र कार्य की भरपाई नहीं कर सकता। पत्रकारों के तमाम दलीलों के बावजूद यह वास्तविकता है कि अधिकांश पत्रकार कम वेतन पाने के लायक हैं। दरअसल पारिश्रमिक मूल्यों के निर्माण के लिए मिलता है और साफ तौर पर यह कहा जा सकता है कि पत्रकार आजकल ये मूल्य सृजित नहीं कर पा रहे हैं। जब तक वे इस मूल मुद्दे को नहीं पकड़ते, तब तक ब्लागिंग या अन्य कोई छोटी आय उनके घटते हुए बिजनेस माडल के मसले को नहींहल कर सकता। नैतिक मूल्य आएंगे कहां से? नैतिकतावादी दार्शनिकों ने नैतिक मूल्यों के दो प्रकार तय किए हैं-मूलभूत और सहायक। मूलभूत मूल्यों में ऐसी चीजें शामिल हैं, जो अपने आप में सुंदर और अच्छी बातों को समाहित किए हुए हों। मसलन सुंदरता, सच और सद्भाव। सहायक मूल्य व्यवहार और उपलब्धियों से आता है। मसलन जागरुकता, समझदारी और धन। पत्रकारिता महज सहायक मूल्यों को जन्म देती है और पाठकों को जानकारियां देने के साथ-साथ सामाजिक क्रिया-कलाप में सहायक बनकर लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिए एक पत्रकार का आर्थिक मूल्य उसके काम की महत्ता और बहुमुखी क्षमता के विनिमय से जुड़ा रहता है। वह जो उत्पाद तैयार करता है, वह मूल्यपरक और अपने पाठकों के प्रति समर्पित होता है। पत्रकारिता जो मूल्य पैदा करती है, उस पर रोशनी डालें तो कई चीजें साफ तौर पर दिखती हैं। पत्रकारिता अपने पाठकों में कार्यकारी, भावनात्मक और अपनी बातें बेहतर ढंग से रखने लायक मूल्यों का विकास करती है। कार्यकारी मूल्य में समाहित हैं जरूरी सूचनाएं और विचार। भावनात्मक मूल्य चीजों, समाज से जुड़ी समझदारी और सुरक्षा से जुड़ी होती हैं। पहले सूचनाओं के श्रोत सीमित थे और मीडिया से जो खबरें, मूल्य वे ग्रहण करते थे उसके बाद उन्हें लगता था कि अखबार के विचारों और सशक्त दलीलों से उसके विचार पहले से अधिक सशक्त और समृद्ध हुए हैं। यह चीजें आर्थिक मूल्यों और प्रासंगिकता को भी तय करती हैं। मगर आज ऐसा नहीं है। आज सूचना के इतने श्रोत हैं कि पहले की तुलना में पत्रकारों और मालिकों का सूचना के माध्यमों पर पहले जैसा नियंत्रण नहीं रह गया है। संचालन, प्रकाशन और वितरण की लागत से जुड़ी दिक्कतों के कारण पहले अखबार चलाने वालों की संख्या सीमित थी। इस वजह से अखबारों की कीमतें आज की तुलना में ज्यादा थी। पर यह अब घटती जा रही हैं। क्योंकि अब सूचनाओं और खबरों का व्यापक स्त्रोत हमारे पास है। पत्रकारिता के जो सबसे प्राथमिक मूल्य हैं, वह पत्रकारों के परिश्रम के बुनियादी मूल्यों से आता है। दुर्भाग्य से वह मूल्य अब समाप्त होने के कगार पर हैं। समाचारों के मूल्य और विज्ञापन के मूल्यों से समग्र मूल्यों के मानदंड तय होते हैं। यद्यपि विज्ञापनों का अपना लक्षित समूह होता है इसलिए विज्ञापनदाताओं को पत्रकारीय सरोकारों से ज्यादा मतलब नहीं होता। उनका उसूल महज मुनाफा कमाना होता है। पत्रकारों के लिए आर्थिक मूल्य ज्यादा अहम नहीं रहा है, मगर अब उसमें बदलाव आ रहे हैं। पत्रकार किसी प्रोफेसर या इलेक्ट्रीशियन की तरह पेशेवर नहीं होते, जिन्हें अपने विषय में खास विशेषज्ञता हासिल हो। नतीजतन पत्रकारिता के प्राथमिक आर्थिक मूल्य अपने स्वयं के ज्ञान से नहीं मिलता। वह हासिल होता है दूसरों को सूचनाएं देने की प्रक्रिया के दरम्यान। इस पूरी प्रक्रिया में ऐतिहासिक महत्व के तीन बुनियादी कार्य स्त्रोतों की पहुंच, सूचनाओं के महत्व का निर्धारण और प्रभावशाली संप्रेषण में दक्षता आर्थिक मूल्य पैदा करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सूचना और ज्ञान कुदरती तौर पर तो उपलब्ध होते नहीं हैं, इसलिए स्रोतों की अधिकता सूचना प्राप्ति के लिए बेहद निर्णायक मामला हो जाता है। एक पत्रकार के पास आसानी से ऐसे अवसर उपलब्ध होते हैं जिनके मार्फत वे सत्ता संस्थानों या अन्य संस्थानों से सूचना हासिल करने में समर्थ होता है। यह काम कोई आम आदमी आसानी से नहींकर सकता है। असरकारी संप्रेषण के लिए भाषाई और कलात्मक दक्षता के अलावा तकनीक भी बेहद जरूरी है। मगर आज मीडिया में तकनीक का बोलबाला इतना अधिक बढ़ गया है कि इस वजह से पत्रकारों की व्यक्तिगत दक्षता का महत्व घट रहा है। परंपरागत रूप से पत्रकार और समाचार संस्थान सूचना स्रोतों, सूचनाओं तक पहुंच और तात्कालिक रूप से पेश करने की वजह से आर्थिक मूल्य सृजित करने में सफल रहे हैं। सूचना क्रांति ने परंपरागत तौर-तरीकों पर जबर्दस्त चोट की है। बगैर किसी खर्च के आज एक सामान्य पाठक भी खबरें जुटाने के साथ-साथ खबरों के निहितार्थ और उसकी पहलुओं की जांच कर सकता है। इसलिए जब तक पत्रकार अपने श्रम के मूल्यों का पुनर्निर्धारण नहींकरते तब तक वे अपनी आमदनी में इजाफा नहीं कर सकते। अधिक आमदनी के लिए जरूरी है कि पत्रकार अपने कार्यों में माहिरी पैदा करें। ज्यादातर पत्रकारों में एक जैसी खूबियां हैं, मसलन खबरें ढूंढने से लेकर प्रस्तुतिकरण और यहां तक कि सवाल भी तकरीबन एक जैसे ही होते हैं। इस वजह से लगभग एक जैसी स्टोरी ही देखने-सुनने और पढ़ने को मिलती है। इस सामान्यीकरण के कारण ही औसत पत्रकारों को कम वेतन मिलता है। इसके विपरीत अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ स्तंभकारों, कार्टूनिस्ट और पत्रकारों जैसे फाइनेंस रिपोर्टर आदि को अधिक मेहनताना मिलता है। पूरे समाचार उद्योग में खबर जुटाने की प्रक्रिया और तरीकों को एक बने-बनाए ढर्रे में पेश किया जाता है। नतीजतन उत्पाद में काफी हद तक एकरूपता दिखती है और अलग-अलग अखबारों में मामूली फर्क दिखाई देता है। इसके बावजूद ज्यादातर पत्रकार यह मानते हैं कि भले ही वह राजस्व की प्राप्ति में सहायक न हो सकें, लेकिन उनका कार्य बहुत अच्छा है। इसलिए आज के बेहद प्रतिस्पर्धी सूचना बाजार में वे अधिक मेहनताने की मांग करते हैं। इसके पीछे उनकी यह दलील भी है कि वह नैतिक मानदंडों के पक्षधर हैं। आज से डेढ़ सौ साल पहले पत्रकार बाजार के ज्यादा नजदीक हुआ करते थे। वे यह बात अच्छी तरह समझते थे कि वे बाजार में श्रम बेच रहे हैं। पत्रकारिता में व्यावसायिकता के आगमन से पहले अधिकांश पत्रकार न केवल समाचार लिखते थे, बल्कि बाजार में जाकर अखबार बेचते भी थे। तब कुछ पत्रकारों को ही नियमित नौकरी मिल पाती थी। पत्रकारों और सामाजिक प्रेक्षकों में इस उद्योग की व्यावसायिकता के सवाल पर बहस होती रहती थी। कार्ल मा‌र्क्स ने कहा था कि ''''प्रेस की आजादी की यह पहली शर्त है कि यह व्यापार में तब्दील न हो।'' इस चुनौती को स्वीकार करते हुए या तो समाचार उद्योग को वक्त के साथ चलना होगा खत्म होना पड़ेगा। यदि अखबार इस चुनौती का सामना कर पाता है, तो हमको पत्रकारिता के तौर-तरीकों और बेहतर लोगों के लिए रास्ते की तलाश करना होगा। जिनकी बदौलत आर्थिक मूल्य पैदा किया जा सके। पत्रकारिता को सूचनाओं के संकलन, प्रक्रिया और वितरण के नये तौर-तरीकों को खोजना होगा। इस प्रकार यह अपने पाठक, श्रोता और दर्शकों को ऐसी सामग्री उपलब्ध करा सकेगा, जो अन्यत्र नहीं मिलती। यह काम पर्याप्त महत्व का होगा और पाठक या श्रोता मूल्य देकर इन सूचनाओं का पाना चाहेंगे। यदि आर्थिक मूल्य विकसित होता है तो पत्रकार परंपरागत ढंग से काम नहीं कर सकते या अन्यत्र प्रकाशित समाचारों की रिपोर्टिग नहीं कर सकते। इनको कुछ नया करना होगा जो मूल्य पैदा करता है। इनको इस प्रकार की सूचनाएं और ज्ञान देना होगा जो पहले से ही कहीं उपलब्ध न हो या ऐसी सूचनाएं देनी होंगी जो पाठकों के लिए अधिक उपयोगी और प्रासंगिक होगी। एक पाठक से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह ऐसी खबरों के लिए मूल्य चुकाए, जो एक दिन पहले के आनलाइन संस्करण में प्रकाशित हो चुकी हैं या आज के हजारों अन्य अखबारों में प्रकाशित हैं। पाक कला पर केंद्रित मैगजीनों की तुलना करते हुए अखबार में पाक कला पर आधारित सामग्री प्रकाशित करने और टीवी पर दिखाए जाने वाले कुकिंग शो दर्शकों को अधिक मूल्यवान नहीं लगते। न ही पाठकों को आधी-अधूरी और अजीबोगरीब खबरों में कोई खास दिलचस्पी होती है, जो अक्सर दूसरी जगहों से जुड़ी होती हैं। कुछ न्यूज मैगजीनों ने इस परंपरागत ढर्रे को तोड़ा है और नए बदलावों के साथ विशिष्ट समाचार सामग्री प्रस्तुत कर रही हैं। घटनाओं और नई प्रवृत्तियों के सार को बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर रही है। यूएस न्यूज और व‌र्ल्ड रिपोर्ट ने इसके पाठकों और रैंकिंग संबंधी गतिविधियों की समीक्षा की है। दैनिक अखबारों को तथ्य और सामग्री की कमी के सवाल पर चुप नहीं बैठना चाहिए, बल्कि उसे विशिष्टताओं की ओर खास ध्यान देना चाहिए। उदाहरण के लिए ''द बोस्टन ग्लोब'' अखबार शिक्षा और स्वास्थ्य रिपोर्टिग के मामले में अगुआ समाचारपत्र माना जा सकता है, क्योंकि इसने अपने प्रसार क्षेत्र में उच्च शिक्षा और चिकित्सा संस्थानों से संबंधित बहुआयामी रिपोर्टो को प्रकाशित किया है। इस ढंग से यह अखबार पाठकों के लिए न केवल उपयोगी हो गया है, बल्कि यह अन्य प्रकाशनों को भी अपनी रिपोर्टो को बेच सकता है। इसी तरह, ''द डलास मार्निग न्यूज'' तेल और उर्जा के क्षेत्र में, ''द डेस मोइंस'' कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट रिर्पोटिग और ''द शिकागो ट्रिब्यून'' विमानों और उड्डयन संबंधी रिपोर्टो के प्रकाशन में विशेषज्ञता हासिल कर उपयोगी हो सकते हैं। स्थानीय समाचारों के प्रकाशन में गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से सुधार करके प्रत्येक अखबार अग्रणी बन सकता है। किसी खास विधि से, अभ्यास, कार्य, योग्यता और बिजनेस माडल को बनाना आसान काम नहीं है, लेकिन इसकी खोज होनी चाहिए। यह केवल नई तकनीकों को अंगीकार करने का मसला नहीं है। आजकल पत्रकार पाठकों के लिए नई सामग्री की खोज, नई तकनीकों-मसलन वेबसाइटों, सोशल नेटवर्किंग, ब्लाग, माइक्रो ब्लाग आदि के माध्यम से करने से लगे हैं। जिससे अधिक पाठकों तक अपनी पहुंच बना सकें। हालांकि सूचनाओं और ज्ञान प्राप्ति के लिए ये नए माध्यम उपयोगी हैं। मगर इस माध्यम से जो मूल्य जोड़े जा रहे हैं, उस संदर्भ में यह खास तौर पर गौरतलब हो जाता है। इसकी वजह यह है कि जो इनसान इन सूचनाओं के प्रति जिज्ञासु हैं, वह इन तकनीकों के माध्यम से यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सही मूल्यों के विकास और संरक्षण के लिए अखबारी संस्थान का सहयोगी रवैया भी जरूरी है, जिससे नए तौर-तरीकों की तलाश की दिशा में मदद मिलेगी। यह ऐसा मसला है जो पत्रकार, प्रबंधन पर नहीं छोड़ सकते। पत्रकारों और प्रबंधकों के लिए जरूरत इस बात की है कि वे सहयोगपूर्ण ढंग से ऐसे सामाजिक संबंध विकसित करें, जिसमें यह कार्य आसानी से हो सके। पत्रकारों के लिए यह भी जरूरी है कि वह उद्यमशील और नई योग्यताएं अर्जित करें, जिससे कि वे किसी परिवर्तन के लिए हर स्तर पर तैयार रहें। अखबार उद्योग के अवमूल्यन को रोका जा सकता है, लेकिन तभी जब पत्रकार पाठकों के बीच मूल्य अर्जित कर सकें और कंपनी की गतिविधियों में अपनी भूमिका बढ़ा सकें। -------------------------------------लेखक स्वीडन की जोनकोपिंग यूनिवर्सटी में मीडिया इक्नोमिक्स के प्रोफेसर हैं।

Monday, September 28, 2009

जाति समस्या को मानवाधिकार के तहत लाना नामंजूर

-संरा मानवाधिकार परिषद की कोशिश पर भारत ने जताया ऐतराज
-नेपाल को भी अपने पाले में लाने की कोशिश करेगा भारतीय खेमा
-कांग्रेस और भाजपा ने भी जताया विरोध
नई दिल्ली
जाति आधारित भेदभाव को मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में लाने की संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की कोशिश को भारत से समर्थन मिलने के आसार कतई नहीं हैं। डरबन में 2001 में संरा की ऐसी ही एक कोशिश को परवान चढऩे से रोक चुके भारतीय खेमे ने फिर से अपने प्रयास को तेज कर दिया है। संरा में तैनात भारतीय कूटनीतिकारों ने तो पहले ही इसके विरोध में मुहिम शुरू कर दी है। संरा मानवाधिकार परिषद ने जाति के आधार पर भेदभाव के मामलों को मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में लाने का मन बना लिया है। पिछले दिनों इसके लिए परिषद ने तर्क दिया कि जाति एक ऐसा पहलू है जिसके आधार पर तकरीबन बीस करोड़ लोगों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। भारत ने जेनेवा में विश्व की इस ताकतवर संस्था को साफ बता दिया है कि उसके मानवाधिकार परिषद की इस कोशिश से जाति आधारित मुद्दों के अंतरराष्ट्रीयकरण का पूरा खतरा है। उसकी दलील है कि वह जाति आधारित भेदभाव का कड़ाई से विरोध करता है। इसके लिए भारतीय संविधान में हर नागरिक को समानता का अधिकार भी प्राप्त है। आने वाले दिनों में अपना पक्ष मजबूत करने के लिए सरकार के काबिल कूटनीतिकारों और मानवाधिकार विशेषज्ञों को संरा के साथ बातचीत करने के लिए लगाया जाएगा। जानकारों का मानना है कि भारत को अनुचित तरीके से परेशान करने की ताक में रहने वाले पाकिस्तान जैसे मुल्कों को भी इससे अपने मंसूबों में कामयाब होने का मौका मिलेगा। इस मामले में संरा से सहमत हो रहे अकेले दक्षिण एशियाई मुल्क नेपाल को भी भारत समझाने का प्रयास करेगा। भारत ने यह तर्क भी पेश किया है कि जाति आधारित अन्याय के मामले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर तब निपटाया जाना उचित है जब इसका हल तलाशने में किसी भी देश का घरेलू तंत्र पूरी तरफ विफल हो चुका हो। ध्यान रहे यही तर्क भारत ने डरबन में भी दिया था जब जातीय भेदभाव को मानवाधिकार उल्लंघन मानने वाले प्रस्ताव को पारित करने की प्रकिया चल रही थी। भारतीय खेमे का यह भी कहना है कि नस्लीय भेदभाव और जाति आधारित दुव्र्यवहार को अलग-अलग देखने की जरूरत है। बदसलूकी या भेदभाव के अपराधों में दोनों एक-दूसरे से एकदम भिन्न हैं। सरकार के रणनीतिकार मान रहे हैं कि संरा में प्रस्ताव को कानूनी जामा पहना दिए जाने से जाति आधारित अन्याय के मामलों को लेकर अंतरराष्ट्रीय दखल बढऩे का अंदेशा है। कांग्रेस ने भी सरकार को साफ संकेत दिया है कि उसे किसी भी कीमत पर जातिगत भेदभाव के मामलों को मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में लाने की कोशिश पर एतराज है। पार्टी ने कहा है कि भारत में हर नागरिक को समानता का अधिकार प्राप्त है और इसमें कोई बाधा होती है तो उसके लिए घरेलू स्तर पर निपटने के लिए कानून और नियम हैं। कांग्रेस ने कहा है कि विश्व समुदाय के दूसरे देशों में अपना अलग तंत्र है और अलग जातिवादी व्यवस्था है। लिहाजा उन्हें अपनी व्यवस्था भारत पर थोपने का कोई अधिकार नहीं है।

जातीय मामलों को मानवाधिकार से जोडऩे के पक्ष में नहीं है भाजपा
नई दिल्ली
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जातीय मामलों को मानवाधिकार से जोडऩे की मुहिम पर भारत में तीखी प्रतिक्रिया उभरने लगी है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने दो टूक कहा है कि इस मामले में भारतीय संविधान एकदम स्पष्ट व पूरी तरह सकारात्मक है और देश में उसी के आधार पर सामाजिक समानता के लिए तमाम कायदे कानून बनाए गए हैैं। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र का मसौदा समझ से परे है। उसे तो भारत को 'रोल माडलÓ के रूप में स्वीकार करते हुए दुनिया को दिखाना चाहिए कि यहां पर किस तरह समानता के लिए काम किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जातीय मामलों को मानवाधिकार उल्लंघन के तहत शामिल करने की कोशिशों का विरोध करते हुए भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा कि सबसे पहले तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि किन आधारों पर संयुक्त राष्ट्र ऐसा करने जा रहा है। उसकी सोच के पीछे की स्थितियां क्या हैं? दुनिया में जो भी सोच हो, लेकिन भारतीय संविधान इस बारे में बेहद सकारात्मक है और उसमें जातीय समानता लाने के लिए वंचित तबकों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इसके परिणाम भी सकारात्मक रहे हैं। भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि उन्हें विश्वास है कि इस तरह का कोई प्रस्ताव भारत पर थोपा नहीं जाएगा, लेकिन यदि ऐसा किया गया भाजपा इसकी भत्र्सना करेगी और इसका विरोध भी किया जाएगा।

Sunday, September 27, 2009

महतो की गिरफ्तारी पर पत्रकार खफा

प्रेस क्लब ने पत्रकार के वेश में महतो की पुलिस गिरफ्तारी की निंदा की
कोलकाता, 27 सितंबर भाषा
कोलकाता प्रेस क्लब ने आदिवासी नेता छत्रघर महतो की सीआईडी कर्मियों द्वारा पत्रकार के वेश में गिरफ्तार करने के तरीके को लेकर आज निंदा की और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को इस संबंध में एक विरोधनामा पत्र सौंपा। क्लब ने अपने पत्र में लिखा, '' पुलिस को पत्रकार का वेश धारण कर काम करने के बारे में हम चिंतित है। यह हमारे पेशे के लिए बहुत अपमानजनक है। मुख्यमंत्री को भेजे गए पत्र पर कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष प्रेमानंद घोष और सचिव काजी गुलाम जी सिद्दीकी के हस्ताक्ष हैं। पत्र में कहा गया है कि प्रेस रिपोटर की पहचान का इस्तेमाल कर पुलिस ने जिस तरह से यह काम किया वह इस पेश की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला है। उल्लेखनीय है कि महतो का माओवादियों से कथित तौर पर संबंध है और पुलिस ने कल पत्रकार के वेश में उसे गिरफ्तार किया था।

ट्रांसपोर्ट कर्मियों की 33वें दिन भी जारी रही हड़ताल

- एसआरटीसी की राज्यव्यापी अनिश्चितकालीन
-चार महीने से नहीं मिला है वेतन
-अब तक साढ़े तीन करोड़ का
नुकसानजम्मू, जागरण संवाददाता : स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन (एसआरटीसी) कर्मचारियों की जारी अनिश्चितकालीन राज्यव्यापी हड़ताल रविवार को 33वें दिन पहुंच गई। कर्मचारियों को पिछले चार महीने से वेतन नहीं मिला है। लेकिन राज्य सरकार भुखमरी के शिकार हो चुके कर्मचारियों को अभी तक वेतन नहीं दे सकी है। कर्मचारियों के समर्थन में रविवार को लगातार चौथे दिन भी अन्य राज्यों के कारपोरेशन की बसों ने राज्य में प्रवेश नहीं किया। रविवार अवकाश होने के कारण आज कर्मचारियों ने कहीं भी विरोध प्रदर्शन नहीं किया। एसआरटीसी कर्मचारी पिछले चार महीनों के बकाया वेतन सहित अन्य मांगों को पूरा न किए जाने के विरोध में पिछले 33 दिन से राज्यव्यापी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं। कारपोरेशन को अब तक 3.50 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान हो चुका है। यूनियन के चेयरमैन शकील अहमद कुचे ने बताया कि 23 मार्च 2008 को सरकार से लिखित समझौता हुआ था कि भविष्य में कर्मचारियों को नियमित रूप से वेतन की अदायगी की जाएगी, इसके बावजूद सरकार अपने वादे पर खरी नहीं उतरी। फलस्वरूप कर्मचारियों को अपना हक पाने के लिए आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा। उन्होंने कहा कि जब तक कर्मचारियों के साथ इंसाफ नहीं हो जाता, उनका आंदोलन जारी रहेगा। यूनियन ने आने वाले दिनों में अपने आंदोलन को और तेज करने का भी ऐलान किया है।

नक्सली के कारण नहीं हो पा रही बाघों की गणना

नई दिल्ली, एजेंसी : अलगाववादी गतिविधियों के कारण देश में बाघों की गणना का काम प्रभावित हो रहा है और नक्सल प्रभावित इलाकों में इनके संरक्षण की गतिविधियां काफी कठिन हो गई हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि 38 बाघ अभ्यारण्यों में से सात अभयारण्य में नक्सली मौजूद हैं जिसका अर्थ यह है कि काफी समय से बाघों की गणना का आधिकारिक कार्य नहीं हुआ है। जाने माने वन्यजीव संरक्षक माइक पांडे ने कहा कि यह क्षेत्र प्रतिबंधित श्रेणी में आते हैं और यहां तक पहुंच सुगम नहीं है। उन्होंने कहा कि नक्सलियों की भय के वजह से संरक्षणवादी या सरकारी अधिकारी इन इलाकों में जाने से बचते हैं। इसके कारण हमें खतरे की स्थिति वाले जीवों की वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी नहीं मिल पाती है। पांडे ने कहा कि देश के उत्तरी इलाके में शूटिंग के दौरान मुझे प्रतिबंधित संगठन के नाराज युवा लोगों मिलने का मौका मिला। इन लोगों को वन्य जीवन की समस्याओं के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। भारतीय वन्यजीवन संस्थान (डब्ल्यूडब्ल्यूआई) ने अपने ताजा बाघ गणना रिपोर्ट में कहा है कि अभयारण्य का इलाका नक्सलियों की भारी मौजूदगी और प्रभाव वाला है और बाघों की घटती संख्या का कारण इनके शिकार से लेकर आवास क्षेत्र का कम होता दायरा हो सकता है। दुनिया में बाघों की संख्या अब 3,000 रह गई है जिसमें भारत में।,400 बाघ हैं। राष्ट्रीय बाघ गणना के आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2008 तक देश में महज।,411 बाघ बचे थे जबकि यह संख्या 1997 में 3,508 रही थी। हालांकि इन आंकड़ों पर भरोसा करना बेहद कठिन है क्योंकि कई इलाकों में बाघों की गणना हुई ही नहीं या सिर्फ खानापूर्ति के रूप में हुई।भारतीय वन्यजीवन संरक्षण सोसाइटी की बेलिंडा राइट के अनुसार भारत में एक तिहाई वन्यजीवन क्षेत्र या बाघ आवास क्षेत्र में अलगाववादियों की मौजूदगी है जिसके कारण बाघों की प्रजनन गतिविधियां अव्यवस्थित होती हैं और इससे उनकी संख्या पर असर पड़ता है।

Saturday, September 19, 2009

मैं घास हूं...आपके हर किए धरे पर उग आऊंगा

मैं घास हूं
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ
हर चीज़ पर उग आऊंगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...दो साल... दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूंगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।
अवतार सिंह पाश (पंजाबी कवि)